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भगवान श्री राम – मानवता के दिव्य आदर्श
लेखक: वरुण वर्मा
अयोध्या की पावन धरती पर, जब भगवान श्री राम ने जन्म लिया, तो यह केवल एक राजकुमार का आगमन नहीं था, बल्कि यह सृष्टि के अधर्म को समाप्त करने और धर्म, सत्य, और मर्यादा की स्थापना का दिव्य प्रारंभ था। भगवान श्री राम, भगवान विष्णु के सातवें अवतार, का जीवन रामचरितमानस में वर्णित है, जो युगों-युगों तक मानवता को मार्गदर्शन देता रहेगा।
राजा दशरथ और महारानी कौशल्या के ज्येष्ठ पुत्र, श्री राम का जन्म एक अद्वितीय उद्देश्य लेकर हुआ। उनके जीवन में गुरु वशिष्ठ के संस्कारों ने धर्म के प्रति निष्ठा और मर्यादा की नींव रखी। बाल्यकाल से ही उनकी हर क्रिया में मर्यादा पुरुषोत्तम के दर्शन होते थे।
जब ऋषि विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा हेतु सहायता मांगने आए, तो राम और लक्ष्मण ने बिना किसी विलंब के उनके साथ चलने का निर्णय लिया। उन्होंने ताड़का और अन्य दुष्ट राक्षसों का संहार कर धर्म और न्याय की स्थापना की। यह घटना उनकी दिव्यता और मानवता का प्रथम परिचय थी।
युवावस्था में श्री राम की यात्रा मिथिला के राजा जनक के दरबार तक पहुंची। वहां माता सीता का स्वयंवर आयोजित था। यह स्वयंवर भगवान शिव के धनुष को उठाने और उसे बांधने की कठिन परीक्षा थी। अनेक शक्तिशाली राजाओं के असफल प्रयास के बाद, श्री राम ने अपनी दिव्य शक्ति और विनम्रता के साथ धनुष को उठाया और उसे बांध दिया।
माता सीता, जो स्वयं आदर्श नारीत्व और पवित्रता की प्रतीक थीं, ने राम को अपने पति के रूप में चुना। यह मिलन केवल दो आत्माओं का संगम नहीं था, बल्कि यह धर्म, प्रेम और आदर्श का स्थायी प्रतीक बन गया।
जब महाराज दशरथ ने अपने वचन की रक्षा के लिए राम को 14 वर्षों के वनवास पर भेजा, तो राम ने इसे बिना किसी क्षोभ के स्वीकार कर लिया। अयोध्या के सिंहासन के वैध उत्तराधिकारी होते हुए भी उन्होंने धर्म और पिता के वचन की रक्षा को सर्वोपरि माना।
वनवास के दौरान उन्होंने न केवल अपनी मर्यादा का पालन किया, बल्कि वनवासियों और साधु-संतों को अपनी करुणा और आदर्शों से प्रेरित किया। जंगल को उन्होंने अपना राज्य और वहां के जीव-जंतुओं को अपनी प्रजा माना। उनका यह व्यवहार सच्ची समावेशिता का प्रतीक था।
वनवास के दौरान रावण द्वारा माता सीता का हरण धर्म और अधर्म के बीच युद्ध की शुरुआत थी। श्री राम ने इस संकट का सामना धैर्य और निष्ठा के साथ किया। उन्होंने अपनी पीड़ा को शक्ति में बदलते हुए धर्म की पुनर्स्थापना का संकल्प लिया।
उन्होंने सुग्रीव और श्री हनुमान जैसे मित्र बनाए, जिन्होंने उनके नेतृत्व और दिव्य व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनका साथ दिया। श्री हनुमान का श्री राम के प्रति अटूट समर्पण भक्ति और नेतृत्व की पराकाष्ठा को दर्शाता है।
लंका का युद्ध धर्म की स्थापना का महायज्ञ था। इस युद्ध में श्री राम ने योद्धा, नेता, और धर्मपालक का अद्वितीय आदर्श प्रस्तुत किया। रावण के प्रति उनका व्यवहार भी उनके महान चरित्र को दर्शाता है। उन्होंने कई अवसरों पर रावण को समर्पण का मौका दिया, जो उनकी दयालुता और क्षमा का प्रतीक था।
श्री राम की विजय केवल रावण पर नहीं, बल्कि अधर्म और अनीति पर धर्म और सत्य की जीत थी। यह सिद्ध करता है कि कोई भी शक्ति धर्म के विरुद्ध टिक नहीं सकती।
रावण पर विजय प्राप्त कर और माता सीता को मुक्त कराकर, श्री राम अयोध्या लौटे। उनका राज्याभिषेक केवल एक राजा का राज्यारोहण नहीं, बल्कि रामराज्य की स्थापना थी – एक ऐसा काल जिसमें न्याय, समृद्धि, और शांति का राज हुआ।
माता सीता ने इस रामराज्य के निर्माण में श्री राम का साथ देकर समाज को करुणा और शक्ति का संदेश दिया। उनके जीवन ने परिवार, समाज, और नेतृत्व के आदर्श स्थापित किए।
भगवान श्री राम का जीवन केवल एक कथा नहीं, बल्कि हर राम भक्त के लिए जीवन का अमृत है। उनकी धर्मनिष्ठा, दया, और मर्यादा हर व्यक्ति के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। वे सिखाते हैं कि सच्चा बल धर्म में है और सच्चा नेतृत्व निःस्वार्थता में।
रामचरितमानस में कहा गया है,
"राम नाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जो चाहसि उजियार।"
भगवान श्री राम केवल एक देवता नहीं, बल्कि धर्म, सत्य, और मानवता के प्रकाशपुंज हैं। उनका जीवन हर युग में अधर्म के अंधकार को मिटाकर धर्म का आलोक फैलाता रहेगा। जय श्री राम!
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